वाराणसी: ज्ञानवापी विवाद से जुड़े 1991 के मुकदमे में गुरुवार को वाराणसी जिला अदालत में महत्वपूर्ण सुनवाई हुई. यह मुकदमा नए मंदिर निर्माण और हिंदुओं को पूजा-पाठ का अधिकार देने को लेकर दायर किया गया था. मुकदमे में पक्षकार बनाए जाने को लेकर दाखिल पुनर्निरीक्षण याचिका पर अपर जिला जज (चतुर्दश) सुधाकर राय की अदालत में सुनवाई हुई.
वाद मित्र विजय शंकर रस्तोगी ने रखा पक्ष
वाद मित्र विजय शंकर रस्तोगी ने अदालत के सामने कहा कि औरंगजेब ज्ञानवापी का मालिक नहीं था और उसने इस विवादित स्थल को वक्फ के रूप में दर्ज नहीं किया था. उन्होंने दलील दी कि मुगलकाल में भूमि व्यवस्था अलग थी. बादशाह किसी राज्य पर जबरन कब्जा करता तो भी भूमि का मालिक वह नहीं होता था, बल्कि उसका मालिक वही किसान या जोतने वाला होता था जो उस जमीन पर कब्जा रखता था. बादशाह की भूमिका केवल कर (लगान) वसूल करने तक सीमित थी. हिंदुओं से ‘जजिया’ और मुसलमानों से ‘ओसर’ के रूप में कर लिया जाता था.
किलों के लिए भूमि खरीदी थी मुगल बादशाहों ने
रस्तोगी ने दलील दी कि इसीलिए औरंगजेब, अकबर और शाहजहां ने जब किले बनवाए, तो उन्होंने भूमि काश्तकारों से खरीदी थी. इसका ऐतिहासिक प्रमाण कोलकाता स्थित एशियाटिक सोसाइटी ऑफ इंडिया वेस्ट के अभिलेखों में सुरक्षित है.
मआसिर-ए-आलमगिरी का हवाला
वाद मित्र ने अदालत के समक्ष औरंगजेब के शासनकाल का ऐतिहासिक वृत्तांत ‘मआसिर-ए-आलमगिरी’ प्रस्तुत किया. यह वृत्तांत साकी मुस्तैद खान द्वारा लिखा गया और बाद में इतिहासकार सर यदुनाथ सरकार ने इसका अंग्रेजी रूपांतर किया. दस्तावेज़ में उल्लेख है कि औरंगजेब ने 18 अप्रैल 1669 को विश्वनाथ मंदिर गिराने का आदेश दिया था, लेकिन इसमें मस्जिद बनाने का कोई फरमान दर्ज नहीं है.
स्थानीय स्तर पर हुआ निर्माण
रस्तोगी ने कहा कि जब मस्जिद बनाने का फरमान ही नहीं है, तो यह निर्माण बादशाही आदेश से नहीं हुआ. बल्कि यह कार्य स्थानीय मुसलमानों द्वारा अनाधिकृत रूप से किया गया था। इसलिए विवादित संपत्ति वक्फ की श्रेणी में नहीं आती. उन्होंने यह भी कहा कि मस्जिद के आस-पास कोई कब्र नहीं हो सकती. यदि वहां कन्न (गड्ढे/कब्र के निशान) हैं, तो वहां मस्जिद नहीं हो सकती और अगर मस्जिद है तो कब्र नहीं होगी.
रामजन्मभूमि केस का हवाला
रस्तोगी ने कहा कि इस तरह की विधि व्यवस्था को सुप्रीम कोर्ट पहले ही रामजन्मभूमि विवाद में स्पष्ट कर चुका है. ऐसे में मुख्तार अहमद अंसारी द्वारा कथित कन्न पर ‘फातिहा’ पढ़ने का प्रश्न ही नहीं उठता.
1937 और 1982 के फैसलों का जिक्र
रस्तोगी ने 1936 के वाद संख्या 62 (दीन मोहम्मद बनाम स्टेट फार इंडिया इन काउंसिल) का उल्लेख किया। इसमें तत्कालीन सब-जज ने 1937 में फैसला देते हुए कथित कन्नों को हिंदू देवताओं की मूर्तियां माना था और उस समय मुसलमानों ने इस पर कोई आपत्ति नहीं की थी. इसके अलावा उन्होंने बनारस के दोषीपुरा क्षेत्र की एक मस्जिद से जुड़े विवाद का भी जिक्र किया. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 1982 में फैसला देते हुए बनारस की 245 वक्फ संपत्तियों से जुड़े नोटिफिकेशन को अवैध करार दिया था.
अगली सुनवाई एक सितंबर को
वाद मित्र की बहस पूरी होने के बाद मुख्तार अहमद अंसारी के वकील ने अदालत से समय मांगा ताकि वह उठाए गए बिंदुओं पर अपना पक्ष रख सकें. अदालत ने यह आग्रह स्वीकार करते हुए अगली सुनवाई की तारीख 1 सितंबर तय कर दी. यह पूरा मामला 1991 में दाखिल उस मुकदमे से जुड़ा है जिसमें ज्ञानवापी में नया मंदिर बनाने और हिंदुओं को पूजा-पाठ का अधिकार देने की मांग की गई थी.