वाराणसीः बनारस हमेशा से जायकों और परंपराओं का शहर रहा है. भादो महीने की शुरुआत यहां रतजग्गा पर्व से होती है. पहले इस पर्व में जलेबा की मिठास और कजरी की मधुर तान मिलकर एक अलग ही माहौल बना देते थे. मोहल्लों की गलियों में देर रात तक कजरी गूंजती रहती थी. महिलाएं समूह में जुटकर गीत गाती थीं जिसके चलते यह अवसर एक सामाजिक मेल-जोल का माध्यम भी बनता था.
बदलने लगी परंपरा
समय के साथ यह परंपरा काफी बदल गई है अब शहरों में रतजगा और कजरी की परंपरा बस जलेबा खाने तक सीमित रह गई है. जगह-जगह जलेबे की अस्थायी दुकानें तो सजती हैं, लेकिन लोग अब शुगर-फ्री और हेल्दी विकल्पों की ओर बढ़ने लगे हैं, जिससे इसका स्वाद भी सिर्फ चाशनी तक सिमट गया है. रतजगा अब बस एक नाम भर रह गया है, उसका पहले जैसा सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व लगभग खत्म हो चुका है.
कजरी की तान जगाती थी अपनापन
पहले के समय में रतजगा केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि पूरे मोहल्ले और समाज को जोड़ने वाला पर्व था. कजरी की तान लोगों के दिलों में अपनापन जगाती थी, महिलाएं सजधज कर सामूहिक गीत-गान में शामिल होती थीं और यह रात एक उत्सव का रूप ले लेती थी. दूसरी ओर देखते ही देखते आधुनिक जीवनशैली, व्यस्त दिनचर्या और बदलती पसंद ने इस परंपरा को पीछे छोड़ दिया है.
आज भले ही रतजगा का जिक्र केवल कजरी के नाम से जुड़ा रह गया हो, लेकिन बुजुर्गों की यादों में यह अब भी वो सुनहरी रात है, जब बनारस की गलियां मिठास और संगीत से भर जाती थीं. अगर आने वाली पीढ़ियां इसे अपनाएं, तो शायद यह खोती हुई परंपरा फिर से अपनी असली चमक पा सकती है.