वाराणसी: काशी हमेशा से धर्म, अध्यात्म और ज्ञान का केंद्र रही है.लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि यह शहर भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भी एक अहम भूमिका निभा चुका है. यहाx के मंदिरों, घाटों, गलियों और चौराहों से लेकर विश्वविद्यालय की कक्षाओं और पान की दुकानों तक , हर जगह आज़ादी की गूंज सुनाई देती थी.
जहां हर गली थी आज़ादी की चौपाल
बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में, काशी हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) के प्रांगण, चौक और मदनपुरा की गलियाँ, कटरा का इलाका, और पान की दुकानों पर देश की आज़ादी पर चर्चा होना आम बात थी. लोग एक साथ बैठकर अंग्रेज़ी शासन के खिलाफ रणनीतियाँ बनाते थे. ये बैठकें कभी खुलेआम तो कभी गुपचुप तरीके से होती थीं, ताकि अंग्रेजी पुलिस को भनक न लगे. इस शहर के कवि, लेखक, छात्र और क्रांतिकारी एक साथ मिलकर आज़ादी के विचार को फैलाने में जुटे रहते थे भाषण, कविताएँ, नाटक और अख़बार ,ये सब हथियार बन गए थे आज़ादी की लड़ाई में.
जब मिठाई बनी देशभक्ति का प्रतीक
इसी दौर में एक अनोखी और मीठी कहानी भी जन्मी .“तिरंगी बर्फी” की. 1920 के दशक में चौक इलाके की मशहूर “लाला बद्री प्रसाद हलवाई” की दुकान के मालिक गहरी देशभक्ति से भरे हुए थे. उन्होंने सोचा कि क्यों न मिठाई के ज़रिये भी लोगों के दिलों में आज़ादी का जज्बा जगाया जाए. लाला बद्री प्रसाद ने एक नई बर्फी तैयार की, जिसमें तीन परतें थीं . सबसे ऊपर केसरिया, बीच में सफ़ेद और सबसे नीचे हरा रंग ये रंग उस समय के स्वतंत्रता आंदोलन में इस्तेमाल होने वाले झंडे से लिए गए थे, जो आगे चलकर हमारे राष्ट्रीय ध्वज की प्रेरणा बना.ये तिरंगी बर्फी सिर्फ खाने की चीज़ नहीं थी, बल्कि एक मौन संदेश थी , “हम एक हैं और हमें आज़ाद होना है.” इसे देखकर लोगों के दिल में गर्व और जोश भर जाता था. मिठाई खरीदने के बहाने लोग क्रांतिकारियों से मिलते, बातें करते और आंदोलन की योजनाएं साझा करते थे.
अंग्रेज़ी हुकूमत की बेचैनी
जब अंग्रेजी प्रशासन को पता चला कि एक मिठाई लोगों में देशभक्ति का भाव जगा रही है, तो उन्हें चिंता होने लगी. उन्होंने दुकानदार को चेतावनी दी और इस मिठाई को बनाने पर रोक लगाने की कोशिश की. लेकिन काशी के लोग डरने वाले नहीं थे. कई हलवाई गुपचुप तरीके से तिरंगी बर्फी बनाते और अपने ग्राहकों को देते रहे.ये एक तरह से ‘मीठा आंदोलन’ था, जिसमें मिठास के साथ-साथ विरोध की चुप्पी भी थी.अंग्रेज चाहकर भी इस छोटे लेकिन असरदार कदम को पूरी तरह रोक नहीं पाए.
बनारस का बौद्धिक योगदान
जहाँ एक तरफ दिल्ली और बंबई में बड़े राजनीतिक आंदोलन हो रहे थे, वहीं काशी में बौद्धिक मोर्चा मजबूत किया जा रहा था. पंडित मदन मोहन मालवीय जैसे नेता, भगत सिंह के साथी क्रांतिकारी और कई जाने-माने कवि-लेखक बनारस की बैठकों में शामिल होते थे .काशी से निकलने वाले अख़बार और पत्रिकाएँ आज़ादी के विचार को पूरे देश में फैलाते थे.विश्वविद्यालयों और साहित्यिक मंचों पर होने वाली बहसों ने नौजवानों को स्वतंत्रता आंदोलन की ओर प्रेरित किया.
75 साल बाद भी ज़िंदा है मिठास
आजादी के 75 साल बाद भी, बनारस के चौक और गोदौलिया के कुछ पुराने हलवाई इस परंपरा को ज़िंदा रखे हुए हैं. हालांकि अब तिरंगी बर्फी को सीधा राजनीतिक प्रतीक मानकर नहीं बेचा जाता, बल्कि इसे रंग-बिरंगे स्वाद के रूप में पेश किया जाता है. फिर भी, बुजुर्ग ग्राहकों का कहना है कि जब भी वे इस बर्फी का स्वाद लेते हैं, उन्हें आज़ादी के उस दौर की याद आ जाती है, जब हर निवाले में उम्मीद, एकता और संघर्ष की मिठास घुली होती थी.
एक मिठाई, जो बनी इतिहास का हिस्सा
तिरंगी बर्फी सिर्फ एक मिठाई नहीं थी यह उस दौर का सबूत थी कि आज़ादी की लड़ाई सिर्फ हथियारों और भाषणों से नहीं, बल्कि कला, साहित्य, भोजन और हर रोज़मर्रा की चीज़ से भी लड़ी गई थी. बनारस ने यह दिखा दिया था कि बौद्धिकता और रचनात्मकता के ज़रिये भी साम्राज्यवादी ताकतों को चुनौती दी जा सकती है.
आज जब हम स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं, तो शायद हमें इस बात को भी याद करना चाहिए कि हमारे पूर्वजों ने सिर्फ रणभूमि पर ही नहीं, बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में स्वतंत्रता का परचम लहराया था . चाहे वह विश्वविद्यालय का व्याख्यान हो, अख़बार का लेख हो या फिर मिठाई की दुकान की एक तिरंगी बर्फी.