
वाराणसी: जिसे दुनिया काशी के नाम से जानती है, सिर्फ गंगा, घाट और मंदिरों तक सीमित नहीं है. यह शहर अपने भीतर पूरे भारत का विविधतापूर्ण रंग समेटे हुए है। यहां का हर घाट, हर मोहल्ला और हर गली अलग-अलग प्रदेशों की झलक दिखाती है. यही कारण है कि काशी को “लघु भारत” भी कहा जाता है. बंगाल, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र, असम, गुजरात और मिथिला जैसे प्रांतों के लोग यहां पीढ़ियों से रहते आ रहे हैं और अपनी-अपनी संस्कृति को सहेजते हुए इसे और भी समृद्ध बना रहे हैं.
काशी में मैथिल समाज की विरासत
मिथिला से आए लोग काशी में सबसे पहले शास्त्र और व्याकरण के अध्ययन के लिए पहुंचे.1910 के आसपास बनैली की मैथिल रानी पद्मावती ने तारा मंदिर संस्था की स्थापना की, जिसने मैथिल समुदाय की शिक्षा और परंपरा को नई दिशा दी. क्वींस कॉलेज (अब उदय प्रताप कॉलेज) में सबसे पहले मैथिल अध्यापक रहे पंडित दीनानाथ मिश्र. इसके बाद महामहोपाध्याय मुरलीधर झा और ज्योतिषाचार्य पंडित जीवनाथ मिश्र नैयायिक जैसे विद्वान यहां अध्यापन से जुड़े. संस्कृत विद्वान गंगानाथ झा ने तो क्वींस कॉलेज में संस्कृत विभाग के प्रिंसिपल से पूरे कॉलेज के प्रिंसिपल तक का सफर तय किया.

मिथिल समाज ने यहां अपनी आस्था और संस्कृति को भी गहराई से रोपा. नीलकंठ, दरभंगा घाट, ब्रह्मनाल, चौक, सामने घाट जैसे क्षेत्रों में आज भी मैथिल परिवार डाला छठ जैसे लोक महापर्व को उसी उल्लास से मनाते हैं, जैसे अपने मूल प्रदेश में. काशी में डाला छठ की परंपरा की शुरुआत का श्रेय भी इन्हीं मैथिल परिवारों को जाता है. छठ घाट पर जब अर्घ्य देने के लिए मैथिल महिलाएं पारंपरिक पाग, माछ, मखान, रसगुल्ला, चूड़ा-दही और तरुआ के साथ पहुंचती हैं तो काशी का परिदृश्य सचमुच मिथिला का रूप ले लेता है.
महान दार्शनिक मंडन मिश्र की स्मृतियां भी काशी से जुड़ी हुई हैं. शंकराचार्य से शास्त्रार्थ में पराजित होने के बाद वे ज्ञानवापी कूप के समीप आकर बस गए और यहीं व्यासपीठ की स्थापना की. आज भी यह स्थान उनकी विद्वता की गवाही देता है.
मराठी परंपरा की गहरी जड़ें
काशी में मराठी समाज की उपस्थिति भी उतनी ही प्राचीन और मजबूत है. पंचद्रावित पुरोहित सभा के साक्ष्य बताते हैं कि महाराष्ट्र के विद्वान यहां बहुत पहले से आकर बस गए थे. पंचगंगा घाट के पास बसने वाले पुरोहित परिवार ‘बनकटे पुराणिक’ के नाम से प्रसिद्ध हुए.

काशी के दिग्विजयी विद्वानों की परंपरा में महाराष्ट्र से आए पं. शेष, भट्ट, मौनी, वाजपेई, पायगुंडे जैसे विद्वान विशेष रूप से जाने जाते हैं. इनमें नारायण भट्ट का नाम सबसे पहले दर्ज मिलता है, जो काशी आए और यहीं बस गए. संवत 1627-28 में श्रीएकनाथ महाराज भी काशी आए और यहां नाथ भागवत ग्रंथ की रचना की. मराठी संतों और विद्वानों ने काशी के ज्ञान और संस्कृति को नई ऊर्जा दी.
सांस्कृतिक संगम की बेजोड़ मिसाल
काशी का हर कोना किसी न किसी प्रांत की महक से भरा हुआ है.यहां बंगाली पंडितों के घर में दुर्गापूजा की धूम होती है, तो गुजराती परिवारों में गरबा की गूंज सुनाई देती है। तमिल और कन्नड़ समाज अपने मंदिरों में विशेष अनुष्ठान और उत्सव मनाते हैं. वहीं, मैथिल और मराठी समाज अपने पर्व और परंपराओं से काशी की सांस्कृतिक विरासत को और अधिक रंगीन बनाते हैं.
काशी का यही स्वरूप इसे सिर्फ एक धार्मिक नगरी नहीं, बल्कि भारत की विविधता का आईना बनाता है। यही वजह है कि काशी को लघु भारत कहा जाता है, जहां हर भाषा, हर परंपरा और हर संस्कृति गंगा की धारा की तरह एक साथ बहती है




