
Varanasi: हमेशा तो किसी को नहीं रहना है. जो आया है वो जाएगा ही. पर कुछ लोग ऐसे होते हैं जो कभी नहीं जाते. भले ही परलोक में उन्होंने अपना ठिकाना बना लिया हो लेकिन इहलोक में उनका यश, उनकी रचनात्मकता, उनका कृतित्व, उनका व्यक्तित्व हमेशा बरकरार रहता है. सुर, ताल और लय के साधक ऐसे ही एक खास शख्सियत ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया. जी हां पदमविभूषण पं. छन्नूलाल मिश्रा नहीं रहे. 91 साल की आयु में उन्होंने अपनी आंखें गुरुवार को तड़के बंद कर लीं. वैसे तो पं. छन्नूलाल मिश्रा मेरे पड़ोसी थे, मैं श्री नगर कालोनी में रहता हूं और उनका निवास पड़ोस के मोहल्ले छोटी गैबी में था. पर उनसे मेरी पहली मुलाकात बतौर खबरनवीस हुई.

बात सन् 2009 या 2010 की है. मेरे अखबार का एनिवर्सरी एडिशन पब्लिश होने वाला था. इसके लिए शहर के नामचीन लोगों से इंटरव्यू करना था. इसी क्रम में पंडित जी से मिलने का कार्यक्रम बना. मैं और मेरे सहयोगी फोटोग्राफर रितेश साहू नियत समय पर उनके निवास पर पहुंच गए. छोटी गैबी के संकरी से गली में उनका निवास था. थोड़ी देर दरवाजा खटखटाने के बाद एक लड़के ने दरवाजा खोला. हमने बताया कि गुरू जी से मिलना है. तो उस लड़के ने एक छोटे कमरे में बैठा दिया. यही उनका ड्राइंग रूम था. जमीन पर ही गद्दा लगा हुआ था, हम वहां बैठ गए . थोडी ही देर में गुरूजी आए. “बतावा का बात करे के हौ ”. हमारा अखबार नया था हमने उन्हें अपना परिचय दिया और उसके बाद बातें शुरू हुई. कहां से आए , किससे सीखा, बनारस में छोटी गैबी कैसे पहुंचे से लेकर तमाम बातें. कुछ घर परिवार की भी.

हमारी बात हो गई अब बारी आई फोटो की. हमारे फोटोग्राफर साथी रितेश ने फोटो लेना शुरू किया लेकिन बैकग्राउंड और लाइट की कमी आड़े आ रही थी. करीब आघे घंटे के रियाज के बाद भी बात नहीं जमी. फिर हमने उनसे उनकी फोटो मांगी. उन्होंने हमारे सामने पूरा एलबम ही रख दिया. कहा कि “ले ला जौन लेवे के हौ. लेकिन वापस जरूर कर दिहा”. रितशे ने फोटो को जैसे का तैसे वापस करने की
जिम्मेदारी ली. फिर उनकी फोटो वापस भी की. जब उनका इंटरव्यू पब्लिश हो गया तो अखबार भी उनके घर पहुंचाना भी हमारी ही जिम्मेदारी थी. वह इंटरव्यू देखकर बहुत प्रसन्नि हुए.

उसके बाद पंडित जी से कई बार मिलना हुआ. आत्मीपयता से भरे अंदाज में भोजपुरी में हालचाल होता. अखबारी जरूरतों के क्रम में एक बार हमारे यहां किसी एवार्ड फंक्शन का आयोजन किया जाना था. उसमें बतौर गेस्ट पंडित जी को भी बुलाने की जिम्मेदारी मुझे दी गई थी. मैंने उन्हें फोन किया और उन्हें कार्यक्रम में बारे में बताया. उन्होंने सारी बात सुनने के बाद कहा कि, ई बतावा कि हम्मे का मिली. मैंने कहा गुरूजी आपके लेवे गाड़ी जाई, स्टेज पर आपका सम्माान होई. इसके जवाब में उन्हों ने कहा कि, पइसा केतना मिली. थोड़ी देर मैं परेशान हुआ कि- पैसे की डिमांड वो भी अखबार से?, पर थोड़ी ही देर में उन्हेांने मेरी परेशानी का अंत कर दिया. यह मजाक हौ... आइब हो, कब आवे के हौ. इतने बड़े कलाकार का ऐसा सहज और सरल रूप मेरे लिए अप्रत्याशित था.

पंडित जी एक बार अपनी छोटी बेटी के साथ मेरे घर भी आये. हुआ यूं कि मेरे एक पत्रकार साथी गोपाल मिश्रा ने बता दिया कि मेरी कॉलोनी में एक अपार्टमेंट में कोई फ्लैट बिकाऊ है, और उस अपार्टमेंट को बनाने वालों से मेरी अच्छी बातचीत है. बस उन्होंने मुझे फोन किया और फ्लैट देखने के लिए आ गए . उन्हें पसंद भी आया पर उनकी बेटी को लिफ्ट से परेशानी होती थी. उन्हें ग्राउंड फ्लोर चाहिए था और जो फ्लैट था वो थर्ड फ्लोर पर था. उसके बाद सभी लोग वहां से होते हुए मेरे घर आये. जैसे ही पंडित मेरे घर में घुसे हरियाली देखकर मगन हो गये. कहा कि अपने एतना हरियाली के बीच रहत हहुआ और हमें ओहर दिवावत रहला. अपने बगल में हमें बसावा.

पंडित छन्नूलाल मिश्र शास्त्रीय गायन के मर्मज्ञ थे पर उनके गायन को प्रसिद्ध उपशास्त्रीय गायक के रूप में अधिक मिली. उनके गाये एक गीत "खेलें मसाने में होली दिगंबर" ने लोकप्रियता के आकाश को छुआ. और इसमें जरा भी संदेह नहीं है कि में कुछ समय पहले शुरू हुई श्मशान की होली ने जो लोकप्रियता हासिल की है उसमें पंडित जी के गाए गीत की अहम भूमिका है. उनके गाये सोहर सचमुच सुनने वालों को आज कृष्ण और राम के जन्मकाल की सैर करा लाते हैं.




