
Bihar Elections: चुनाव में वोट देना यह वो अधिकार है, जिसे जनता के हक की लड़ाई के लिए लड़ा जाता हैं. इस चुनाव पर्व के आते ही सभी नेताओं की दस्तक जनता की दहलीज पर शुरू हो जाती है. लेकिन चुनाव खत्म होते ही इन नेताओं का जनता के बीच चक्कर लगाना भी कम हो जाता हैं. चुनाव में सबसे ज्यादा चर्चा रहने वाला मुद्दा है तो वो है रोजगार. इस मुद्दे को हर पार्टी अपने चुनावी एजेंड़े का हथियार बनाकर चलती हैं. नतीजा भी हर किसी के सामने है, बिहार में 2020 हुए विधानसभा चुनाव में रोजगार का मुद्दा जितनी तेजी से उठा था उतनी ही तेजी से इस बार के विधानसभा चुनाव में ये कहीं ना कहीं सुस्त भी पड़ा हैं. जी हां, इस बार बिहार की युवा पीढ़ी अपने रोजगार के मुद्दे पर मौन साधे बैठी है. आखिर क्यों, तो चलिए आज हम आपको बिहार के युवाओं की इस चुप्पी का कारण बताते हैं.

दरअसल, बिहार की युवा पीढ़ी रोजगार के मुद्दे पर चुप है, जो बहुत कुछ बयां करती हैं. बात करें, पिछले पांच वर्षों की तो बिहार में भर्ती परीक्षा रद्द हुई, पेपर लीक हुआ, रोजगार के लिए युवाओं की पुलिस से झड़प तक हुई, यहां तक की पुलिस के डंडे भी खाने पड़े, इस रोजगार ने छात्रों से इतने पापड़ बेलवाये कि उन्हें अपने अधिकार के लिए विरोध-प्रदर्शन तक करना पड़ा. इस बेबसी को देख राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव इस बिहार चुनाव में रोजगार को इस कदर पकड़ कर बैठे हैं मानों इसे कोई और नेता लपक ना लें. युवा पीढ़ी को साधने के लिए तेजस्वी ने युवाओं से वादा किया कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आती है, तो हर परिवार में एक सरकारी नौकरी जरूर होगी. जबकि एनडीए ने आने वाले पांच वर्षों में 2 करोड़ सरकारी नौकरियां और राज्य में नए निवेश के माध्यम से रोजगार सृजन और उद्यमिता का वादा कर बैठी है. नेताओं द्वारा इतना सब ऐलान होने के बाद भी बिहार की युवा पीढ़ी नाराज है, इन वादों को वह जरा भी स्वीकार नहीं कर रही हैं.

युवाओं की इस नाराजगी का कारण कुछ और नहीं बल्कि पेपर लीक होना, सरकारी नौकरी की वैकेंसी न निकालना, औद्योगिक विकास की कमी, सीमित सरकारी नौकरी जैसे मुद्दे हैं. जिस पर युवाओं का मानना है कि गिरगिट जैसा रंग बदलने वाले ये नेता अक्सर चुनाव के दरमियान में रोजगार के मुद्दे उठाकर युवाओं को लुभाने के लिए उनसे सरकारी नौकरी देने का वादा करते हैं, लेकिन जैसे ही सत्ता की कुर्सी पाते है उनके दिलों-दिमाग से युवाओं से वादा किया हुआ मुद्दा ही गायब हो जाता है.

अगर कभी वैकेंसी निकलती भी है तो उसका पेपर कैंसिल हो जाता तो कभी लीक हो जाता है. सालों-साल युवा सरकारी शिक्षक की नौकरी की तैयारी करते हैं, फिर भी नतीजा कुछ नहीं मिलता. इसके चलते इन युवाओं को मजबूरन दूसरे देश में जाकर प्राइवेट नौकरी का सहारा लेना पड़ता हैं. उदाहरण के तौर पर बता दें कि, कुछ समय पहले बिहार सरकार ने शिक्षक भर्ती परीक्षा 3 (TRE3) पूरी कर लगभग एक साल पहले TRE4 की घोषणा की. लेकिन अभी भी शिक्षकों को काफी लंबा इंतजार करना पड़ रहा है.
मतलब साफ है कि सरकार वैकेंसी निकालकर ये जता देती है कि सरकार ने अपना वादा पूरा कर लिया है. उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि जिस रोजगार मुद्दे पर वो टाल-मटोल करती है वो लाखों-करोड़ों युवाओं का सहारा है, जिसे पाने के लिए युवा दिन-रात मेहनत करते हैं. ना खाने की चाहत और ना सोने की. ऐसे में कहना जरा भी गलत नहीं होगा कि इन युवाओं का दर्द ये नेता क्या जानेंगे जिन्हें जनता का हक मारने की आदत सी हो गई है,

उन्हें परवाह है तो सिर्फ अपने सत्ता की जिसे पाने के लिए वो चुनाव प्रचार में जनता के सामने हाथ जोड़कर चुनाव की भीख मांगते हैं, पर समय आने पर सब कुछ फुस्सी बम की तरह नजर आता हैं. क्योंकि युवाओं का मानना है कि सभी सरकारें एक जैसी ही होती हैं, फिर चाहे वो नीतीश हो या फिर कोई और इन्हीं रवैये से तंग आकर इस बार बिहार चुनाव में युवा तेजस्वी के वादों पर थोड़ा सा भी भरोसा नहीं करना चाहते हैं.




