


एक रिपोर्ट्स के मुताबिक, पतंग का आरम्भ प्राचीन चीन में हुआ. चीनी स्रोतों में पतंगों का उपयोग लगभग सैकड़ों साल पहले दर्ज हुआ है. बता दें कि पहले पतंग लकड़ी, बांस और रेशम, कागज़ से बनाई जाती थी और सैन्य व वैज्ञानिक प्रयोजनों के लिए उपयोग में लाई गई. लेकिन, समय के साथ ही पतंगों का रूप और उपयोग मनोरंजन और धार्मिक उद्देश्यों के लिए विकसित हो सका है, जो इस वर्तमान स्थिति में यह एक पॉपुलर खेल के रूप में हमारे सामने है.

पतंगों की उत्पत्ति चीन से हुई, जिसके बाद से भारत समेत एशिया के अन्य देशों में भी पतंगे बनने लगी. इतिहासकारों और लोक-लेखों के अनुसार, बौद्ध भिक्षुओं, व्यापारी-पथिकों और बाद में पतंग संबंधी तकनीकें भारत में पहुंची. ऐसा भी दावा किया जाता है कि, भारत में पहले से ही पतंगों का खेल काफी प्रचलित बना और बाद के शासक, विशेषकर मुगल दरबार और स्थानीय नवाबों के दौरान, पतंगबाजी शाही शौक और सामाजिक मनोरंजन का हिस्सा बनी. भारत में पतंग उड़ाने की परंपरा का सबसे प्रसिद्ध और व्यवस्थित रूप मकर संक्रान्ति यानी उत्तरायण के समय दिखाई देता है. गुजरात, राजस्थान, पंजाब और अन्य राज्यों में इस दिन व्यापक रूप से पतंगबाजी होती है.

अहमदाबाद का अंतरराष्ट्रीय पतंग उत्सव इस परंपरा का सबसे मुख्य उदाहरण है. इसका ऐतिहासिक-धार्मिक अर्थ सूरज के उत्तरायण होते समय का प्रतीक और सामुदायिक उत्सव है. कुछ लोगों का मानना है कि पतंगबाजी का खेल सिर्फ मकर संक्रान्ति तक ही सीमित है. लेकिन ऐसा जरा भी नहीं है. क्योंकि कई क्षेत्रों में पतंग उड़ाने का अपनी एक अद्भुत परंपरा है. जैसे कि, बसंत पंचमी, पोंगल (दक्षिण), स्वतंत्रता दिवस इत्यादि मौकों पर भी पतंग उड़ाया जाता हैं.
दिवाली के दूसरे दिन 'जमघट' लखनऊ की एक खास परंपरा है, जो असल में पतंग उड़ाने और लोगों के एक साथ मिलकर मनाने का एक उत्सव है. यह गोवर्धन पूजा के दिन मनाया जाता है और इसकी शुरुआत लगभग 300 साल पहले नवाबों के दौर में हुई थी. यह एक सामाजिक परंपरा है जिसमें सभी उम्र और धर्मों के लोग इकट्ठा होते हैं. बता दें, 'जमघट' की ये खास परंपरा जो 'नवाबी काल' से चली आ रही पतंगबाजी का एक उत्सव है. इस दिन, सभी धर्मों के लोग एक साथ मिलकर अपनी-अपनी छतों पर पतंग उड़ाते हैं, प्रतियोगिताएं आयोजित करते हैं, और आसमान में रंग-बिरंगी पतंगें उड़ाते हैं, जिसे "पेंच लड़ाना" कहते हैं.

कई क्षेत्रों में दिवाली के आसपास मौसम ठंडा पर शुष्क रहता है और दिन के समय स्थितियां छतों से पतंग उड़ाने के लिए अनुकूल होती हैं. इससे सामूहिक पतंगबाजी संभव होती है.
पतंगबाज़ी में प्रतिस्पर्धात्मक भावना है. इस पतंगबाजी के दौरान फोकस रहता है तो सिर्फ इस बात की कि, किसकी डोर बची और किसकी कटी. इस उत्सव के मौकों पर यह प्रतिस्पर्धा स्थानीय रूप से बढ़ जाती है जिससे जमघट बनते हैं.
कुछ शहरों में यह परंपरा सदियों पुरानी हो सकती है. स्थानीय मेलों, नवाबी तहजीब, परिवारों के रिवाज़ों से जुड़ी हुई है. यही कारण हैं कि दीवाली के बाद पतंगबाजी की प्रथा गुजरात के उत्तरायण जैसी बड़े पैमाने की पतंग परंपरा जितनी व्यापक नहीं बन पाती, पर कई नगरों और मोहल्लों में दैनिक स्थानीय स्तर पर दिखाई देती है.

पतंगबाजी के साथ सुरक्षा और पर्यावरणीय चिंताएं भी जुड़ी हैं. मांझे को लेकर अक्सर ये दिक्कत देखने को मिलती है कि पतंगों का ये मांझा लोगों, पक्षियों और वाहनों के लिए खतरनाक साबित होता है. जिसे देखते हुए जागरूकता अभियानों की आवश्यकता रही है. आधुनिक केमिकल-आधारित सामग्रियों और प्लास्टिक पतंगों से पर्यावरणीय प्रभाव बढ़े हैं. इसी कारण सामुदायिक आयोजन और उत्सवों में सुरक्षा-नियम, ‘ग्रीन’ विकल्प और जिम्मेदार व्यवहार पर ज़ोर बढ़ा है.




