क्या आप किसी ऐसे मंदिर के बारे में जानते हैं जहां की अधिष्ठाात्री देवी को उनके भक्त अपना रक्त समर्पित कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं. मेरे ख्याल में नहीं. तो चलिए हम आपको बताते हैं. यह मंदिर देवभूमी उत्तरराखंड के चंपावत जिले में है, जिसे देवीधुरा मंदिर के रूप में जाना जाता है. इस मंदिर को तंत्र साधना के एक प्रमुख केन्द्र की मान्याता है. देवी वाराही इस मंदिर की अधिष्ठात्री हैं. विविधताओं के देश भारत में प्रचलित मान्यता और परंपरा का यहां एक अनूठा दृश्या देखने को मिलता है.
पत्थरमार युद्ध के लिए है प्रसिद्ध
हर साल रक्षाबंधन के पर्व पर यहां हजारों की भीड़ जुटती है. इस अवसर को बग्वाल मेला या पत्थरमार युद्ध के लिए जाना जाता है. मंदिर के सामने एक बड़ा सा खाली मैदान है. यहीं पर बग्वारल की परंपरा निभायी जाती है. मैदान के चारो कोनों पर मां के भक्त एकत्र होते हैं. फिर एक दूसरे पर पत्थर फेंकते हैं. जिस जिस भक्त को पत्थर से चोट लगती है वह खुद को बहुत सौभाग्यशाली समझता है. देवी को प्रसन्नत करने के लिए एक व्यक्ति में पाये जाने वाले लगभग साढ़े छह लीटर अपना खून भक्ते बहाते हैं. तकरीबन 15 से 20 मिनट तक भक्त एक दूसरे पर पत्थर फेंकते हैं. भक्तोंं में हाथों में बेंत या बांस से बनी बड़ी बड़ी छतरियां होती हैं जिससे वो बचने का प्रयास करते है. मंदिर के मुख्य पुजारी के आदेश से ही पत्थरमार युद्ध शुरू होता है और उनके ही आदेश पर बंद भी हो जाता है. चूंकि युद्ध में बड़ी संख्याड में भक्त घायल होते हैं इसलिए परंपरा के निर्वाह के लिए पत्थ रों की जगह फूल और फल फेंके जाने की अपील की जाती है लेकिन भक्ति , श्रद्धा और परंपरा के इस आयोजन में ये अपील बेअसर सी दिखायी देती है.
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सैकड़ों सालों पुरानी है परंपरा
पत्थ़रमार युद्ध की यह परंपरा कब शुरू हुई इसका कोई लिखित प्रमाण नहीं है लेकिन स्थानीय लोगों का कहना है कि यह सैकड़ों सालों से चली आ रही है. स्थापनीय निवासी दिलिप बिष्टा बताते हैं कि उन्हों ने जब से होश संभाला है तब से इस आयोजन को देखते आ रहे हैं. उनके पूर्वज भी मंदिर के इस परंपरा के बारे में बताते रहे हैं. लेकिन इसके शुरूआत का कोई लिखित दस्ताजवेज उपलब्धक नहीं है. हां लोक में यह मान्येता है कि पहले यहां नरबली की परंपरा थी. इस स्थाभन के एक परिवार से किसी एक व्येक्ति का चयन नरबली के लिया किया जाता था. और यह क्रम से तय होता था. एक बार एक वृद्ध महिला जिसका सहारा उसका एक मात्र पोता था. उसका चयन नरबली के लिए किया गया. महिला जाकर देवी के मंदिर में खूब रोई और मां से उसके पोते की बलि न लेने की प्रार्थना की. मां ने प्रकेट होकर महिला को आशीर्वाद दिया उसके पौत्र की बलि नहीं हुई. तब से नरबली की यह परंपरा पत्थरमार युद्ध में बदल गयी और आज तक उस परंपरा का निर्वाह किया जा रहा है.
मां के शिलारूप के होते हैं दर्शन
मां वाराही देवी के दशर्न के लिए विशालकाय गोलाकार शिला खण्डों से बनी गुफा में जाना पड़ता है.। इस गुफा के भीतर अनेक मंदिर हैं जिनमें देवी देवताओं और उनके वाहनों के चित्र उकेरे गए हैं। इसी गुफा में मां वाराही देवी भी स्थापित हैं. जिन्हें पिण्ड या शिलारूप में पूजा जाता है. देवी के स्वरूप को कपड़े से ढक कर रखा जाता है. माना जाता है कि देवी पिंड को साक्षात देखने पर उनके तेज से आंखों की रोशनी चली जाती है. अपने अज्ञातवास के दौरान पांडवों के भी यहां आने की मान्य ता है.
मनोकामना पूर्ण होने पर बांधते हैं घंटी
मंदिर के प्रवेश द्वार के खंभों पर हजारों की संख्या में घंटियां बंधी हैं. जो मां के भक्ती अपनी मनोकामना पूर्ण होने पर बांध देते हैं. लोहाघाट से देवीधुरा मंदिर की दूरी तकरीबन 45 किमी है. जहां प्राइेवट वाहन और टैक्सी के जरिये आसानी से पहुंचा जा सकता है्. नैनीताल टनकपुर से भी यहां के लिए आसानी से वाहन उपलब्ध है.