वाराणसी : भगवान शिव की नगरी काशी न केवल मंदिरों के लिए मशहूर है, बल्कि इसकी मिट्टी में आज़ादी की खुशबू भी बसी है. भारत छोड़ो आंदोलन से लेकर स्वतंत्रता संग्राम के कई पड़ावों तक, काशी ने हमेशा जंग-ए-आजादी में अहम भूमिका निभाई है .इसी काशी की धरती पर बसा है करखियांव गांव, जो वाराणसी शहर से लगभग 40 किलोमीटर दूर स्थित है और जिसे आज भी गर्व है कि उसके यहाँ से 24 स्वतंत्रता सेनानी आज़ादी की जंग में कूदे थे. यह गांव अगस्त क्रांति और भारत छोड़ो आंदोलन का जीवंत साक्षी है.
8 अगस्त 1942 को बंबई अधिवेशन में महात्मा गांधी ने ‘करो या मरो’ का नारा दिया .यह नारा पूरे देश में बिजली की तरह फैल गया और आज़ादी के लिए निर्णायक संघर्ष की शुरुआत हो गई.वाराणसी और चंदौली (जो उस समय बनारस जिले का हिस्सा था) में भी आंदोलन की लहर उठी. करखियांव गांव के कई सेनानी अपने रिश्तेदारों के गांव हिंगुतर (चंदौली) और आसपास के इलाकों में पहुंचे, जहां नौजवान धानापुर और सैयदराजा थानों पर तिरंगा फहराने गए. लेकिन अंग्रेजी पुलिस ने आंदोलनकारियों पर गोली चला दी, जिसमें हीरा सिंह, रघुनाथ सिंह और मंहगू सिंह शहीद हो गए.
शहीदों के बलिदान से करखियांव में आज़ादी की आग और भड़क उठी. गांव में गुप्त बैठकें होने लगीं. तय हुआ कि ब्रिटिश शासन की जड़ें कमजोर करने के लिए रेलवे लाइन तोड़ी जाएगी, सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया जाएगा और संचार व्यवस्था ठप कर दी जाएगी.इसी रणनीति के तहत खालिसपुर से त्रिलोचन के बीच कई जगह रेलवे ट्रैक उखाड़े गए, स्टेशन पर तोड़फोड़ की गई और टेलीफोन तार काट दिए गए. इन कार्रवाइयों से ब्रिटिश हुकूमत हिल गई.
11 अगस्त 1942 को करखियांव के लोगों ने ऐतिहासिक कदम उठाते हुए फूलपुर थाने पर तिरंगा फहरा दिया. यह सिर्फ झंडा फहराने की घटना नहीं थी, बल्कि ब्रिटिश सत्ता के मुंह पर करारा तमाचा था.
हालांकि, अंग्रेजी पुलिस तुरंत हरकत में आई और गांव में छापेमारी की, लेकिन ग्रामीण खेतों और दूर-दराज के इलाकों में छिप गए.
18 अगस्त 1942 को नौ क्रांतिकारियों को पकड़ लिया गया. उन्हें जनता के बीच लाकर सार्वजनिक रूप से 15-15 बेंत मारने की सजा दी गईं ताकि लोग डर जाएं और आंदोलन में भाग न लें. इसके बाद उन्हें 7 साल की कठोर कैद की सजा सुनाई गई और वाराणसी केंद्रीय कारागार भेज दिया गया. लगभग 8-9 महीने जेल में बिताने के बाद 1943 में वे रिहा हुए, लेकिन तब तक करखियांव और आसपास के गांवों में आज़ादी की भावना और मजबूत हो चुकी थी.
करखियांव की लड़ाई में महिलाएं भी पुरुषों से पीछे नहीं रहीं. सुरसती देवी, कलावती देवी, नौरंगी देवी और गंगातली देवी जैसी वीरांगनाओं ने कई बार पुलिस की आंखों में धूल झोंककर क्रांतिकारियों तक भोजन और संदेश पहुंचाए.कुछ महिलाएं सीधे आंदोलनों में शामिल हुईं और ब्रिटिश पुलिस से आमने-सामने टकराईं . उनका योगदान यह साबित करता है कि आज़ादी की लड़ाई केवल पुरुषों की नहीं, बल्कि पूरे समाज की लड़ाई थी.
करखियांव के 24 वीर सेनानी
गांव के स्वतंत्रता सेनानी विभिन्न जातियों और परिवारों से थे.-
अवध नारायण सिंह, जयश्री सिंह, महेश सिंह, वाली सिंह, नारायण मिश्र, वासदेव मिश्र, आद्या नारायण, खिद्दीर उर्फ जगरदेव, वावूनन्दन, चरित्तर, रामकृपाल मौर्य, लुप्पुर मौर्य, रामनारायण सिंह, सुरसती देवी, भगवंता यादव, भगवती देवी, वासदेव सिंह, वंशराज सिंह, कलावती देवी, श्रीनारायण सिंह, नौरंगी देवी, गंगातली देवी, रामकरन यादव और विपत.
also read:महिलाओं ने जमकर किया विरोध, बंद कराई शराब की खुली दुकान
आज भी प्रेरणा के स्रोत
करखियांव केवल एक भौगोलिक स्थान नहीं, बल्कि बलिदान, साहस और एकता का प्रतीक है. यहां की धरती ने ऐसे वीर और वीरांगनाएं दिए, जिन्होंने अपने प्राणों की परवाह किए बिना आज़ादी के सपने को साकार करने में योगदान दिया.आज भी यह गांव आने वाली पीढ़ियों को यह सिखाता है कि जब बात देश की हो, तो जाति, धर्म और वर्ग से ऊपर उठकर एकजुट होना ही असली देशभक्ति है.