वाराणसी: जब हम स्वतंत्रता संग्राम की कहानियाँ सुनते हैं तो ज़हन में सबसे पहले रणभूमि की तस्वीर, नेताओं के जोशीले भाषण, जेल की सलाखें और जुलूसों का शोर गूंजता है. लेकिन बनारस की धरती पर आज़ादी की लड़ाई सिर्फ नारेबाजी और हथियारों से ही नहीं लड़ी गई थी. यहां के पान की महक और मिठाई की मिठास में भी देशभक्ति का रंग घुला हुआ था.बनारसी पान और तिरंगी बर्फी इस अनोखे ‘स्वाद भरे आंदोलन’ के गुप्त सिपाही थे.
पान की गिलौरी में छुपे आज़ादी के संदेश
बनारस का पान सदियों से मशहूर है, लेकिन 1920 और 1930 के दशक में यह सिर्फ स्वाद का आनंद नहीं देता था, बल्कि गुप्त संदेशों का वाहक भी बन चुका था .क्रांतिकारी पान के पत्तों में छोटे-छोटे कागज़ के टुकड़े लपेटकर भेजते, जिन पर आंदोलन की योजनाएं या महत्वपूर्ण संदेश लिखे होते थे .चौक, मैदागिन और गोदौलिया जैसे इलाकों की पान की दुकानें स्वतंत्रता सेनानियों की गुप्त बैठक स्थली बन गईं. यहां चाय या पान खाते-खाते ही आंदोलन की रणनीतियां तैयार होतीं और नए साथियों को जोड़ने की योजनाएं बनतीं. अंग्रेजी पुलिस को शक भी नहीं होता, क्योंकि पान खाना बनारस की रोजमर्रा की आदत थी.
तिरंगी बर्फी की मीठी क्रांति
इसी दौर में चौक इलाके के प्रसिद्ध हलवाई लाला बद्री प्रसाद ने मिठाई को भी आज़ादी का पैगाम देने का माध्यम बना दिया . उन्होंने तीन रंगों वाली खास बर्फी तैयार की ऊपर केसरिया, बीच में सफ़ेद और नीचे हरा , यह रंग उस समय के स्वतंत्रता आंदोलन का आधार बने.यह तिरंगी बर्फी केवल मिठाई नहीं थी, बल्कि मौन क्रांति का प्रतीक बन गई. इसे देखते ही लोगों के दिलों में जोश भर जाता थ. क्रांतिकारी और छात्र इसे खरीदने के बहाने दुकान पर आते, बातचीत करते और आंदोलन की खबरें आपस में साझा करते.अंग्रेजी प्रशासन ने जब देखा कि एक मिठाई भी देशभक्ति की लहर फैला रही है, तो उन्होंने लाला बद्री प्रसाद को चेतावनी दी और इस पर रोक लगाने की कोशिश की.लेकिन बनारस के लोग पीछे हटने वाले में से नहीं थे. कई हलवाई गुप्त रूप से तिरंगी बर्फी बनाकर अपने ग्राहकों तक पहुँचाते रहे. कभी-कभी बर्फी के डिब्बों में भी गुप्त संदेश छुपाकर भेजे जाते थे.
काशी का बौद्धिक मोर्चा
जहाँ देश के दूसरे हिस्सों में बड़े-बड़े राजनीतिक आंदोलन चल रहे थे, वहीं काशी ने स्वतंत्रता संग्राम में बौद्धिक ताकत का योगदान दिया. BHU, कटरा और मदनपुरा जैसे इलाकों में कवि, लेखक और छात्र मिलकर देशभक्ति के विचार फैलाते.नाटक, कविताएँ, गीत, और अखबार सब आज़ादी के विचारों को जन-जन तक पहुंचाने का हथियार बने. काशी की यही बौद्धिक ताकत देशभर के आंदोलनों को ऊर्जा देती रही.
पान और बर्फी: स्वाद में लिपटी क्रांति
यह वाकई अनोखी बात है कि बनारस की पहचान माने जाने वाले पान और बर्फी, दोनों ही उस दौर में आंदोलन के ‘खामोश हथियार’ बने. पान की गिलौरी में गुप्त संदेश पहुंचता, तो तिरंगी बर्फी लोगों के दिलों में जोश भरती. ये साधारण सी लगने वाली चीज़ें उस समय जनता में एकता और देशभक्ति का भाव जगाने का ज़रिया थीं.
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आज भी ज़िंदा है स्वाद और यादें
आज, स्वतंत्रता के 79 साल बाद भी, बनारसी पान और चौक की तिरंगी बर्फी अपने स्वाद और शान के लिए मशहूर हैं.अब ये राजनीतिक प्रतीक तो नहीं, लेकिन सांस्कृतिक धरोहर ज़रूर हैं.बुज़ुर्ग बताते हैं कि जब वे तिरंगी बर्फी का स्वाद लेते हैं या पान की गिलौरी मुंह में रखते हैं, तो उन्हें आज़ादी के उस दौर की याद ताज़ा हो जाती है . जब हर निवाले और हर कौर में देश के लिए कुछ करने का जज़्बा छुपा होता था.