वाराणसी: सिर्फ मंदिरों और घाटों के लिए ही नहीं, बल्कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अपनी अमिट भूमिका के लिए भी जानी जाती है. यह नगरी स्वतंत्रता सेनानियों के लिए प्रेरणा का केंद्र और क्रांतिकारियों का दूसरा घर रही है. यहां की मिट्टी में आज़ादी की खुशबू और अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह की चिंगारियां सदियों से सुलगती रही हैं.
आज़ादी की लड़ाई 1857 से बहुत पहले ही काशी में शुरू हो चुकी थी. लगभग 242 साल पहले ही इस धरती ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंक दिया था. यहां के क्रांतिकारी जहां मैदान में लड़ रहे थे, वहीं साहित्यकार, कवि, पत्रकार और विचारक अपनी कलम और विचारों के ज़रिये अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिला रहे थे.
काशी ने ऐसे अनेक वीर सपूत देश को दिए, जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में अपना अमूल्य योगदान दिया. इनमें रानी लक्ष्मीबाई, मुंशी प्रेमचंद्र, भारतेन्दु हरिश्चंद्र, डॉ. सम्पूर्णानंद, पत्रकार बाबूराव विष्णु पराड़कर, लाल बहादुर शास्त्री, पंडित मदन मोहन मालवीय और कमलापति त्रिपाठी जैसे नाम प्रमुख हैं.
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की महान नायिका रानी लक्ष्मीबाई का जन्म काशी में हुआ था. उन्होंने झांसी की रक्षा के लिए महिला और पुरुषों की एक स्वयंसेवक सेना बनाई. तात्या टोपे के साथ मिलकर काल्पी और ग्वालियर की लड़ाई लड़ी और ग्वालियर के किले पर कब्जा किया. उनका साहस आज भी देशवासियों को प्रेरित करता है.
मुंशी प्रेमचंद्र का योगदान सीधा राजनीतिक मोर्चे पर नहीं था, लेकिन उनकी कहानियां और उपन्यास आम जनता में जागरूकता का संचार करते थे. उन्होंने साहित्य को हथियार बनाकर सामाजिक बुराइयों पर प्रहार किया और जनमानस को आज़ादी के लिए तैयार किया.
भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने अपने लेखन और विचारों से राष्ट्र को सांस्कृतिक और मानसिक रूप से गुलामी के खिलाफ तैयार किया.उन्हें आधुनिक हिंदी साहित्य और भारतीय नवजागरण का जनक कहा जाता है .उनके नाटकों, कविताओं और लेखों ने स्वतंत्रता सेनानियों में जोश भर दिया.
डॉ. सम्पूर्णानंद स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रहे और बाद में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में उनका योगदान अद्वितीय रहा. वे न केवल नेता, बल्कि विचारक और समाज सुधारक भी थे.
बाबूराव विष्णु पराड़कर – पत्रकारिता के योद्धा
पत्रकार बाबूराव विष्णु पराड़कर ने ‘आज’ अखबार के संपादक के रूप में स्वतंत्रता आंदोलन को आवाज दी. उन्होंने पत्रकारिता को सिर्फ खबर देने का माध्यम नहीं, बल्कि जनजागरण का औजार बनाया. उनके लेख और संपादकीय अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जनमत तैयार करने में अहम थे .
लाल बहादुर शास्त्री ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भागीदारी की. 1921 में असहयोग आंदोलन के दौरान उन्हें पहली बार जेल जाना पड़ा. बाद में देश के दूसरे प्रधानमंत्री बने और "जय जवान, जय किसान" का नारा देकर देश में एकता और आत्मनिर्भरता की भावना को मजबूत किया.
पंडित मालवीय ने असहयोग आंदोलन, साइमन कमीशन विरोध और नागरिक अवज्ञा आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई. उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा. उन्होंने 1916 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) की स्थापना की, जो आज भी ज्ञान और संस्कृति का केंद्र है.पत्रकारिता में भी उनका योगदान रहा, जहां उन्होंने ‘अभ्युदय’, ‘मर्यादा’ और ‘लीडर’ जैसे पत्रों का संपादन किया.
कमलापति त्रिपाठी 1921 के असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन में शामिल रहे, जिसके लिए उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा. 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के लिए मुंबई में गिरफ्तार हुए और तीन साल जेल में रहे. बाद में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और केंद्रीय रेल मंत्री बने. उन्होंने ‘आज’ और ‘संसार’ जैसे समाचार पत्रों का संपादन भी किया.
काशी की खासियत यह रही कि यहां के लोग सिर्फ तलवार से नहीं, बल्कि कलम से भी लड़े। साहित्यकारों, कवियों, पत्रकारों और विचारकों ने शब्दों को हथियार बनाया और जनता के दिलों में आज़ादी का सपना बोया. इस बौद्धिक क्रांति ने स्वतंत्रता आंदोलन को गहरी नींव दी.
काशी के इन सपूतों की कहानियां सिर्फ इतिहास नहीं, बल्कि आज की पीढ़ी के लिए प्रेरणा हैं. उन्होंने यह साबित किया कि आज़ादी सिर्फ युद्धभूमि में नहीं, बल्कि विचारों, कलम और सामाजिक चेतना के जरिए भी हासिल की जा सकती है.